पृष्ठ:रसकलस.djvu/३२०

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७१ आलंबन विभाव फुलि उठे हग सखिन के छबि लख देत असीस । व सफूल दूनो फवत सीस-फूल तिय-सीस ।। ॥ फूल कहूँ फल कहुँ लगत यह विपरीत महान । सीस-फूल सों देखियत स-फल होहिं अखियान ।। ३ ।। सुर-पुर बसतहुँ लेत यह सुनासीर - मन खेंच । परत सरासर पेच मैं लखि तेरो सरपंच ॥ ४ ॥ माँग हग दुहन की देखियत बढ़त जाति नित माँग । कहा मॉगि नहि सकति मन-सॉगनवारी 'मॉग ।। १ ।। रूप धरे अपनो दिपत अति-अनूप अनुराग। सरस-सिंदूरवती नहीं यह युवती की मॉग ।। २॥ पारि देत मन पेच मैं रच पेचीले स्वॉग । नीकी-मुकतावलि-वलित गज-गमनी की सॉग ।। ३॥ पाटी कौं पटी नहिं काहु की तिय-पाटी के साथ । याहि अटपटी मैं किते पटकत पाटी माथ ॥१॥ पढ़ि विधि को पाटी कहत जग-परिपाटी कॉहि । जो सुख पाटी सों पटे पाट ठटेहूँ नॉहि ॥२॥ चोटी बिख सों कछु चढ़ि जात सुनि या वेनी की बात । लहर न आवत काहि लखि नागिनि सी लहरात ।। १ ।। विख वाके काटे चढ़त याके नेक लखात । क्यो वेनी सी औगुनी गिनी निागिनी जात ॥२॥ का अजगुन की बात जो मानव - हिय हरग्वात । सुमन-सजी बेनी लखे सुमनस-जी न । अघात ।।३॥