पृष्ठ:रसकलस.djvu/३२४

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आलंबन विमाव mhet ऋवित्त- किधौं विवि नैन कमनीय कामिनी के नीके लसि मंजु आनन मैं मन लेत मोल हैं। किधौं अति-सरस-सरद-सरसीरुह मैं निवसि युगल अलि बनिगे अबोल हैं। 'हरिऔध' किधौं काम-कलित- मुकुर मोहि सोहत विमोहत रतन अनमोल मानी मनसिज - युग-मीन मन मोद मानि किधों चंद-मंडल में करत कलोल हैं ॥शा लावे लॉवे कुंचित चिकुर पीठ परि राजे सुवरन-भीति पै फनिंद गतिबारे से। गोरे-गोरे सुघर कपोल पै सु-तिल सोहैं मसि-बिंदु सुमन-गुलाव मै सँवारे से। 'हरिऔध' ऐसी कछू वनी है छवीली आज सीस लस मोती अंधकार विच तारे से। कारे-कारे तारे ए अरुन अखिया मैं डोलें अमल कमल मै मिलिंद मतवारे से ||२|| दोहा- चाही ते निसि - दिन रसहूँ मैं बसे लह्यो न सो रस मीन । जो रस इन अखियान को बरवस विधना दीन ।।३।। वन मैं बसे खंज वनज मृग मीन । कछु अनबन ही सी रही अखियन सो निवही न ||४|| करि सैनन उपजावहीं मैनहुँ के मन एनी- नयनी के नये नीके ए दोउ नैन ||शा