पृष्ठ:रसकलस.djvu/३२९

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रसकलस नेसुक सिकुरत नाक लखि परत सॉकरे आन । नाक-निवासिन को रहत सदा नाक मैं प्रान ।।२।। या तिय-नथ की बात कछु कहत वनत है नॉहि। मुकुत मिले हूँ देखियत फंसी नासिका माँहि ॥३॥ निधरक जन सौंहैं रहत चूमत अधर रसाल । वेसर - मोती कत चलत वेसरमों की चाल ||४॥ बरवस विवस कर पर निसि - बासर नहिं चैन । विसरायेहुँ बिसासिनी तिय - बेसर बिसरै न॥५॥ नहिं केवल कामिनी-नहिं ऐसो भयो सुपास । को मुकुतन को संग करि लहत न नाक - निवास ॥६॥ तजि ममता निज वरन की मल परिहरि तन दाहि । करि मुकुतन को संग नथ नाक विराजत आहि ।। ७॥ कान दोहा- कहा भयो अपवाद जो बाद करत जन अहै प्रससित मत यही स्रुति-संमत-मति होय ॥ १ ॥ भूखित भूखन-भाव सों ए भू मैं दरसाहिं। कहा भयो भावुक भये जो स्मृति भावहिं नाहिं ॥ २॥ वडे - बड़े मुकुतन कियो निज बस मैं हठ ठानि । वसीकरन की वानि अस बसी करन मैं प्रानि ॥३॥ मुकुतन हूँ को है जहाँ निवसन को अधिकार । कानन गये कहा रखत, जव कानन सो प्यार ॥४॥ लोक- वेद विपरीत यह रीति जकत चित जोय । बतिसेवी मुकुतन लखे अतन - उदै तन होय ॥ ५॥ सिद्धपीठ से मैन के । दोउ स्रवन सुहाहि । बाला को सेवत लखत जहँ मुकुतनहूँ कॉहिं ॥ ६ ॥ कोय।