पृष्ठ:रसकलस.djvu/३३३

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रसकसस 58 'हरिऔध' कोऊ कहै मजुल रसाल माहि, कोऊ कहै गौरवी गवैयन के गान मैं। मेरे जान केवल निवास है अमिय केरो कामिनी के कुसुम - समान अधरान मैं ।।२।। सवैया- 'विव बॅधूक जपा-दल विद्रुम लाल हूँ लालिमा पै ललचाहीं । माधुरी की समता को सदाहिं ये ऊख पियूख मयूख सिहाही । का 'हरिऔध' से मानव की कथा देवता दानव हू बलि जाहीं। वीर कहै किन धीर धरा अधरा अवलोकि धरातल माहीं ।।२।। वर विद्रुम मैं कहा लाली इती कहा मजुलता जपा ऐसी गहै । कहा लाल मैं लाल लगाई इती समता कहा बापुरो विंब लहै । कहा ऊख मयूख पियूख मैं एती मिठास अहै 'हरिऔध' कहै । जिती माधुरी कोमलता कमनीयता मोहकता अधरा मैं अहै ।।३।। दोहा- मनसिजहूँ वाके विना जीवन धारत नॉहि। सुधा मिली काको नहीं अधर - सुधाधर मॉहिँ ।। ४ ।। गगन - लालिमा मैं लसित कल कौमुदी समान । काको मुदित करति नहीं अधर - वसी मुसुकान ।। ५॥ चिबुक दोहा- गिरे चिबुक गाड में निबुक सकत मन नॉहिं । मधुप ममान परो रहत मंजुल पाटल मॉ हिं ।। १ ।। देखि छके चितवत रहे मोहे कहि अनमोल । रमिक-नयन-तिल कर सके स-तिल चिबुक को तोल ॥२॥