पृष्ठ:रसकलस.djvu/३३४

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८५ आलंबन विभाव कविच- बीजुरी विचारी है विकल विलखानी फिरी हीरक के हारहू को तेज सब हरि गो। चूर - चूर भयो चोप चुन्नी की चिलकहूँ को दुतिवारे - दीपक - दिमाग हूँ उतरि गो। 'हरिऔध' वदन बनावत व्रजेस्वरी को विधि हूँ को बहुरो बनाइबो विसरि गो। तरनि के तन मैं न तनिक लुनाई रही तारन समेत तारापति फीको परि गो।। १ ।। दीपति दुगूनी दुति रैन-दिन. आठो जाम दामिनी-दमक सम परत न मद है। दबकि रहत देखे दीपमालिका को दीप पेखे लहत अनंद है। 'हरिऔध' सीरो तापकर छन - छन ओप वढ़त अपार चूमि परत न छंद है। तेज है कि तंत्र है कि तारा है कि यंत्र है कि राधिका-बदन है कि रवि है कि चंद है ॥२॥ सवैया- आइकै व्योम बसेरो लियो अब आपनो रूप अनेक संवारत । ₹ कवौं तीन कलादिक सो प्रकट कौं पूरी कलान को धारत ।। राधिका-आनन की समता हित ब्योंत नये 'हरिऔध' विचारत । अवि गयो बसि वारिधि अंक मैं मानों मयंक कलंक पखारत ||३|| बारिज कुमुद