पृष्ठ:रसकलस.djvu/३३५

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श्सकलस 5 € दोहा- छवि लखि वारति प्रान रति मोहत रहत मनोज । है सुंदरता - सरित को सुंदर - बदन सरोज ॥४॥ वाकी विभा लहे लसत अनुपम - रस नभ - अंक । है बिनोद - बारीस को मंजुल - बदन मयक ।। ५ ॥ ग्रीवा दोहा- सरस - राग अनुराग को वाते निकसत सोत । लखे कठ कंठा - सहित चित उत्कंठित होत ॥ १ ॥ वाको कहे कपोत सम होत ललित - उर लठ। हरत कबु की कबुता कोकिल - कंठी - कठ ॥ २॥ भुजा दोहा- विरचित है वर • बीजुरी बिविध - विलास सकेलि । सुवरन • वरनी की भुजा है सुबरन की वेलि ॥ १ ॥ काम - पास - कमनीय के सुख - सर - मंजु - मृनाल । विचलित होत बिलोकि चित बलय - वलित - भुज-वाल ॥२॥ कलाई संवैया- चुरो सुचारू की चारुताई लग्वे चचलता चित चौगुनी प्रावे। छ पछेलन के फरफट ते मंद भयो मनहूँ दिखरावे ।। सृघी मुगोल भई तो कहा 'हरिऔध' हियो जो महा अकुलावे । गरी हेरात है आई क्लो कोऊ कैसे कलाई लखे कल पावे ॥१॥