पृष्ठ:रसकलस.djvu/३३९

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रसकलस ६० कहि मृनाल के तार सी कवि - कुल लेत कलक । करति लालची लोचनन तिय लचकीली लंक ॥२॥ जंघा दोहा- मति - हीनन के मतन को एरे मन मत मातु । दभ करत ते जे कहत रंभ - खंभ सम जानु ।। १॥ कहा कहहिं हम जानु को जोहि रूप औ रंग। कनक - खम करि - कर किधौं मजुल-मदन-निषंग ॥२॥ पिंडरी दोहा- कौन देत नहिं कलभ · कर - कोमलता को टोंकि । सुथरी - प्यारी- पोंडुरी प्यारी की अवलोकि ॥१॥ काको भावति है नहीं काहि लुभावति नॉहिँ । अति - सुढार यह पीडुरी रस ढारति हग मॉहिं ।। २॥ गुल्फ दोहा- देखि मजुता मृदुलता चित यह करत कबूल । गोरी के गोरे गुलफ है गुलाब के फूल ॥ १ ॥ परम - मनोहरता मिले मोहित मन करि देत । गोल गोल नवला - गुलुफ मोल काहि नहिं लेत ।। २ ।। के सुख - उपवन - सुमन के गति-सपुट-अभिराम । कै सुंदरता - कुलुफ के गुलुफ वडे - छवि - धाम ॥३॥