पृष्ठ:रसकलस.djvu/३५७

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रसकलस १०८ सुंदर को 'हरिऔध' कैसी कात कल्पना है कामुक की कुर को कहत करि - कर है उमहि कै। करत कलकित मयंक - मुखी बतराइ आकुल करत अहि काकुल कौ कहि कै॥१॥ मोल लोल - लोचन को हरत ममोला कहि अधर - सुधाधर मैं बिंबता लहत है। अमल - कपोल को बतावत मधूक सम कल - कठ कॉहिं कबु कहि के दहत है। 'हरिऔध' न्यारी मजु-मानस की मजुता है करत असुदर रहत है। वनज वनावत वदन - विधु - रंजन कौ खजन स अजन नयन को कहत है ।। २॥ चाव है पै चाव मैं अभाव तिय-भाव को है पूत प्रेम- व्यजन - विहीन रुचि-थाली है। तन - सु - सदन स्वामी सहज - सरस है न ममता • रहित मन - उपवन - माली है। 'हरिऔध' लालन को ललना बिलोकि चुकी कर मैं न लसति ललित नीति - ताली है। नाहि है सलोनोपन मिलत सलोने माहिं लोने - लोन - लोयन मैं नेह की न लाली है ।।३।। मर्म पीडिता . कबित्त- विधुर - विवाह पै विवाह क्यो करत जात विधवा क्यो विधवा सदेव रहि हहरति ।