पृष्ठ:रसकलस.djvu/३८५

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रसकलस १३८ प्रौढा प्रोषितपतिका कवित्त- चूमि चूमि प्यार ते उचारती वचन ऐसे जाते प्रेम प्रीतम को तोपै भूरि छावतो। मोहित है तेरे चोंच मॉहि चारु-चामीकर 'हरिऔध' हीरा हेरि हिय पै लगावतो। एरे काक बोलत कहा है ककनीन बैठि मजुल - मनीन तेरे चरन जरावतो। नैनन को तारो बाँकी-बड़ी-अखियान-वारो प्यारो-प्रान वारो जो हमारो कत आवतो ।। १ ।। पी कहाँ वहाँ हूँ जो पुकारतो पपीहा पापी प्यारो कैसे प्रानन को धीरज वधावतो। क्यों हूँ मन मानतो न उनको मनाये आलो जो पै मोरनी लै सोर मोर हूँ मचावतो। 'हरिऔध' कैसे देस मॉहिं निवसत आली कोऊ तो विभेद या को हमको वतावतो। ऐसई जो होतो वाँ डरारो वजमारो घन कैसे मनवारो ना हमारो कंत आवतो ।।२।। पतिया न आई एक वतिया न सॉची भई प्रीति मैं तिहारी तऊ छतिया पगी रहे। आज काल ही में प्रान चाहत पयान कीने तिनमें प्रतीति तेरी तवहूँ खगी रहै। प्यारे 'हरिऔध' तुमैं नीके ना निहायो तऊ रोइ रोइ जामिनी मैं अँखिया जगी रहै। मनमन सपन हूँ मैं मगन भयो ना तऊ पगन तिहारे सेरी लगन लगी रहे ॥३॥