रसकलस १४२ 'हरिऔध' प्यारे सॉची कहौ छलछद छोरो भोर ही कहाँ हो आज फिरत भुलाने से । रावरे बिसाल हग-कज लाल है रहे हैं सूरज उगे हू क्यो सरोज सकुचाने से ॥१॥ परचि गई हौं पेचपाच-वारे बैनन सों परपच कोने मोहि मिलन सहारो ना । काट-छाँट-बारी-बानि काटत करेजो अजौं कपट किये हूँ कूट - बचन उचारो ना। 'हरिऔध' जाहु जागि जामिनी विताई जितै जियरा हूँ जावक लिलार लाइ जारो ना। ढग-वारी-साखिन पै ढारो ना हमारो मन रग-वारी-आँखिन को मोपै रग डारो ना ||२|| परकीया दोहा- हौं जागी सारी - निसा बनि बड - भागिनि - वाल । लाल तिहारे ए नयन - युगल भये क्यों लाल ||२|| भूरि - भाग - वारो भयो पग सोहि । लाल भाल - जावक दहत क्यों पावक बनि मोहि ॥२॥ कलहान्तरिता प्रिय से कलह कर अतरित पश्चात्तापपरायणा स्त्री कलहान्तरिता कहलाती है। उदाहरण मुग्धा दोहा- जल छलकत है नयन में भलो लगत नहि भोर । पिय ते कलह किये भयो न्यो कलही मन मार ॥१॥ काहू के
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