पृष्ठ:रसकलस.djvu/४०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५९ नायक काको कलपावत नहीं करि निज लोचन लाल । काल काल हूँ को बनत गहि कर मैं करवाल |शा परम-प्रबल माया-निपुन धीर-बीर मद-मान। को बसुधा-तल मैं भयो बारिद-नाद समान ॥६|| ३-धीरललित निश्चिन्त, कोमल स्वभाव, नृत्य-गीतादि में अनुरक्त, हँसी-खेल में निपुण, काम-कामिनी-प्रेमिक और नीतिरत गभीर पुरुष धीरललित कहलाता है । उदाहरण कवित्त- चिता ते रहत दूर चारु-चाव भरो चित सुख-मुख चाहि चाहि चाहना हसति है। धारत कमल-मुख कोमलता मानस की कामना मैं कमनीय - कामिनी बसति है। 'हरिऔध' रुचि राग-रंग में रहति रमी मंजु-तान कान मैं सुधा है निवसति है। ललित-कलान ते मगन है रहत मन लोयन मैं लालिमा लगन की लसति है ॥१॥ सवैया- चाव सों है तिनको बहु चाहत जे अहैं चारुता-चाहक-चेरे । घूमत है रस-मंजु थलीन में साथ अलीन के सॉझ सवेरे। है 'हरिऔध' सनेहिन को धन जीअत है रहि नेहिन नेरे । सोहत है कुसुमावलि सो लसि मोहत मोहन-आनन हेरे ||२||