उसकलस १६४ उदाहरण कवित्त- तहाँ अरि साहसी मचावत समर - घोर जहाँ सूरमा हुँ को न पाँव ठहरत है। तहाँ करवाल लै कमाल के के किलकत महा - काल - केतन जहाँ पं फहरत है। 'हरिऔध' जघन हिलत ना डटे - दल मैं घेरे परे धन के समान घहरत है। पवि - पात भये नॉहि नेको थहरत गात नॉहिँ नर - केहरि निहारि हहरत है ॥१॥ दुख को समूह देखि सामुहें सकात नाहिं साहस - सहित सारि आपदा सहत है। प्रतिकूल - वायु वहे आकुल न नेको होत ऑच सहे कचन सी मंजुता लहत है। 'हरिऔध' चार वार तग जंग मोहिं भये श्रग - अग भरित उमग ते रहत है। सर - तीर - पीर हूँ ते बनत अधीर नाहि भीर परे वीर वीरता के निवहत है ।।२।। दोहा- भव - दुस- पारावार को है मो अनुपम - पोत । विचलितफर - माधन लहे जो चित - चलित न होत ॥३॥ नर - पुगव बहरत नहीं कठिन काल अवलोक । आफुल करत न तामु चित आकुलतामय - अोक ||४|| दुग्म - दिवन हुँ में दम मस्त सबल - मनन को छू न । कटक में ही रहत है विकच गुलाव - प्रसून ॥५॥
पृष्ठ:रसकलस.djvu/४११
दिखावट