पृष्ठ:रसकलस.djvu/४१४

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१६७ नायक छुटी समाधि न संभु की भयो न तप - अवसान । लगे सरग-तिय - नयन - सर चले पंचसर - बान ।।४।। तीखे सहसन विसिख ते विधि - विधि के बहु ठाँव । तजत धीरता धीर नहिं धरत न पीछे पाँव ।।५।। तेज अन्य के किये गये आक्षेप और अपमानादि को प्राण जाने की संभावना होने पर भी सहन न करना तेज कहलाता है। उदाहहण कवित्त-- रोम रोम विधे बाधा बाधा को न मानि लेहि विविध - बिरोधन निवारि निबहत हैं। अपमान भये पै अपान हूँ बिसरि जाहि मान गये प्रान - दान करि उमहत हैं। 'हरिऔध' वाद भये वदत न काल हूँ को खीजे वैर बामदेव हूँ ते वेसहत हैं। होत हैं तिरोहित सकारे के सितारे सम औरन को तेज तेज - वारे ना सहत हैं।॥ १॥ वंक • भौंह अवलोकि बंकता गहत भूरि नेसुक - कलंक लगे भूलत अपान है। चात वढ़े वात बात मॉहि रिस-वस होत सीस के गये हूँ ना सहत अपमान है । 'हरिऔध' तीखी-अॅखियान हेरि तीखो होत आन पर आन बने गहत कृपान है। तेज-वान-जन-अभिमान-तम को है भानु दुवन -गुमान वन- दहन समान है॥२॥ + 1 1 ! 1