पृष्ठ:रसकलस.djvu/४४५

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उसकलस ११८ पुष्प दोहा- ललकित-लोयन मैं बिलसि बनि छिति छ ब-अनुकूल । फूले हैं क्यारीन मैं रंग रंग के फूल ॥१॥ पराग दोहा- क्यारिन मैं महमह महकि लहि अलिगन - अनुराग । बन - बागन विहरत रहत सरस - प्रसून पराग ॥११॥ चंद्र दोहा- स्याम स्याम-छवि अंक से अंकित करि निन-अक । मोहि मोहि काको नहीं मोहित करत मयंक ॥१॥ नभ में कम तारे नहीं काम - रूप अ - कलंक । बरसत वसुधा मैं सुधा सुधा - निवास - मयंक ॥२॥ कैसे छिटकति चाँदनी करि छबिमय छिति अक । क्यों होती रंजित रजनि होतो जो न मयंक ॥३॥ चोर - चैन - हर चारुता - चोर रुचिर - रुचि - रंक । है चकोर - चित चोर जग - लोचन - चोर - मयंक ||४|| केहि आनंदित नहि करत हॅसि हॅसि बनि सुख - अंक । प्रकृति - भाल - चंदन - तिलक गगन प्रसून मयक ॥शा चाँदनी दोहा- काहू की कीरति - विमल फैली है मन मोहि । के चमकति है चनी चाम धरा पै सोहि ॥१॥