पृष्ठ:रसकलस.djvu/४४७

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२०० रसकलस पौन के लगे ते कैसो डोलत है तरु-बूंद कैसी आज फूली फुलबारी है वसंत की ।।२।। कम कमनीय हैं न जग - अनुरजिनी हैं विलसति कोपलें बिटप अंक जेती है फूले फूले फूलन पै गुजत मधुप - पुज चिरिया हूँ चहकि चहकि चित चेती हैं । 'हरिऔध' लतिकाएँ विपुल ललित बनि ललकित लोचन मैं लोच भरि देती हैं। करि अठखेलियाँ ललामता की लाली रखि लाल लाल बेलियाँ निहाल करि लेती हैं ॥३॥ सरस मधु - मोह वनि है मधुप मैं विराजमान काकली है कोकिल - कलाप मैं बसत है। चौगुनी - चमक बनि राजत मयंक में है चारु - चाँदनी मैं चारुता मिस हँसत है। 'हरिऔध' हरे - हरे तरु मैं हरीतिमा है छवि - व्याज वारिज - बरूथ मैं बसत है। सुमन पै बरसि रस सरसत वेलिन - विलास मैं वसत विलसत है ।। ४ ।। फूले हैं पलास कैधौं दहकि दवारि लागी कूकै पिक कैधौं कठ बधिक - प्रवीन को । उलही धरा पै लसी लतिका - ललित कैयौं जोहि जोहि जालन सों जकर यो जमीन को । 'हरिऔध' वाहत विखीले - बाँके वानन को कैधौं विकस्यो है जूह कुसुम - कलीन को।