सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसकलस.djvu/४५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८५ उद्दीपन-विभाव पल पल बहु - हिम - जल ते सिंचत तऊ तवा लौ स - अचल हिमाचल तपत है ॥७॥ बार बार बरि चरि उठहिं विपुल - वन पावक मैं पादपता पादप की पगी है। तपरितु - ताप ते तवा सम तपति महि वारि हूँ की सीतलता आतप ते भगी है। 'हरिऔध' भरे से अगार हैं अगारन सो आग सी वगर औ बजारन में लगी है। ज्वाल उगिलत ज्वालामुखी के समान रवि ज्वालमाला सारे जगती - तल मैं जगी है ।।८।। है 'प्रतपित तपरितु - ताप ते वसुधरा प्रलय - प्रकोप ते तिहूँ पुर किधौं तये । पावक - दुरंत ते दिगत है दहत किधी दावा - मय सेस के सहस - फन ह गये । 'हरिऔध' कोऊ दव - गिरी है बमत दव नरक - ॲगार कैधौँ छिति - तल पै छये । खुलिगो तिलोचन को तीसरो विलोचन के दिव मॉहि द्वादसो दिवाकर उदै भये || दावामय चने सीरे सीरे सारे - उपचार सेस - फल सॉस भई सरस - समीरता । पावक ते पूरि गये सरित सरोवरादि नम छाई धूरि वनि धरती - अधीरता । 'हरिऔध' तपरितु - तीखन - तपन तपे तात भो तुहिन लोप भई नीर - नीरता।