पृष्ठ:रसकलस.djvu/४५६

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२०६ उद्दीपन-विभाव दोहा- बीर धीर कैसे धरहुँ रहत न चित मैं चेत । परम अधीर - पपीहरा पी पी कहि जिय लेत ।। ८ ।। अरुन पीत सित कत करत स्याम सलोनो अंग । कत बादर बद वनत हैं वदलि वदलि कै रग ॥ ६ ॥ मो मन ही मानत नहीं कहा करैगो मैन । बादर के बरसे कहा जब जल वरसत नैन ॥१०॥ ऋवित्त- शरद् मंद - मंद - हसन गगन विच चंद लाग्यो करतूति दामिनी भई है कला-नट सी । निरमल · जल - वारे सरन खिले हैं कंज जिन पै लगि है भौंर भीरन की ठट सी। 'हरिऔध' चहूँ ओर सरद बिकास पायो पावस - प्रतापी की गई है आयु घट सी । चटकीली चाँदनी ते रंजित भई है भूमि कढ़ति दिसान सो सुगंध की लपट सी ॥१॥ बिना कीच कैसी स्वच्छ राजति बसुंधरा है कैसी मंजु - नीलिमा आकास मैं बसति है। गंध लै समीर हूँ वहत मद मंद कैसो कैसी यह विमल - दिसा हूँ बिहॅसति है। 'हरिऔध' दीसत हैं सर मैं सरोज कैसे धीर वहि कैसी सरिता हूँ सरसति है। सोहत है सीतल मयंक कैसो नभ माँहि कैसी अवनी-तल पै चाँदनी लसति है ।।२।।