पृष्ठ:रसकलस.djvu/४६८

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२२१ उद्दीपन-विभाव डारि दीनो रंग तो उमंग कत ऊनो भयो विगरथो कहा जो मुख मॉहि मली रोरी है। कुंकुम चलाये कौन हानि भई अंगन को मारि पिचुकारी कौन करी बरजोरी है। 'हरिऔध' तेरो होत कहा अपकार है जो वार बार ग्वालन की बजति थपोरी है। रूसन को रार को न रोस को कळू है काम एरी वृखभानु को किसोरी आज होरी है ।।७।। ठानत हो सदा हठ आपनी ही बातन को ताके रोकिवे को कहाँ काको को सहेजि है। होइ जैहे कळू विपरीति तो वतावो लाल वरसाने कौन सो सँदेसो कोऊ भेजिहै। 'हरिऔध' अविर गुलाल लौं वनी है वात चूमि देखो कहें लौं करेजो परतेजि है। पुप्प-रस-कनिका लगे ते जाको पीर होति ताको अंग कैसे रंग-धावन अगेजि है ।। करत कान कत पिचकारी कर मॉहि लीने आवत है व्रज मैं जनात तू तो निपट हठीलो है। नेक मेरी वातन को भूलि ना होरी के गुमान मैं गजव गरवीलो है। 'हरिऔध' कहा लाभ अनरस कीने होत मुबस बसे हूँ ब्रज कैसो तू लजीलो है। ए हो लाल वा पै रंग छोरिवो छजत नॉहिँ गात-रंग ही सो वाको वसन रंगीलो है l