पृष्ठ:रसकलस.djvu/४९३

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सकलस २४६ नर नर माँहि नाहिं नरता निहारी जाति प्रभुता - प्रभाव - पूत होत नॉहि पौर पौर । 'हरिऔध' सब मैं समान गुन - गन है न बहु - रस बलित बनत नॉहि कौर कौर । घर घर मॉहिं रमनीय - रमनी है कहाँ कमनीय - खनि अवनी मैं है न ठौर ठौर ॥३॥ मद - माती - मुदित - मयूर मंडली के काज पारत पियूख कौन घन की घहर मैं । मजु - सुर - मत्त या कुरगन के हेत कौन वेबसी भरत वेनु - बधिक - निकर मैं । 'हरिऔध' होति जो न मोह मैं महानता तो बँधत मिलिंद कैसे कंज के उदर मैं । मन कैसे रमत चकोर और मरालन को मोद - वारे मजुल - मयंक - मानसर मैं ।।४।। मरु - भूमि - मारुत बनत बनत मलयानिल है रहत अमरता अमर - नगर मैं। लहत न वारि - बूंद वारि - धर बारिधि मैं वनजाति बारि - धारा धूरि वारि-धर मैं । 'हरिऔध' अनुकूल - देव प्रतिकूल भये गरल सुधा की सोत होत सुधा - कर मैं। न मधु है मधुप मधु माधव मैं मिलत मराल को न मोती मानसर मैं ॥५॥ पावत मरु - भूमि नंदन - विपिन पनि विलसत नदन विपिन दग्ध होत . दरसत है।