पृष्ठ:रसकलस.djvu/४९६

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- २४९ रस निरूपण 9 n श्रृंगार स्थायी भाव-रति देवता-विष्णु भगवान् अथवा श्रीकृष्ण वर्ण -श्याम आलंवन-नायक और नायिका उद्दीपन- सखा, सखी, वन, बाग, उपवन, तडाग, चद्र, चाँदनी, चदन, भ्रमर, कोकिल, ऋतुविकास आदि- अनुभाव-भृकुटि-भंग, कटाक्ष, हाव, भाव, मृदु मुसकान आदि- संचारी भाव-उग्रता, मरण, आलस्य और जुगुप्सा को छोड़कर शेप २९ स्मृति, हर्प, औत्सुक्य, जड़ता, मति, विवोध आदि भाव- किसी किसी की सम्मति है कि इस रस में कुल सचारी भाव आते हैं- विशेष विभाव, अनुभाव, और संचारी भाव के संयोग से शृंगार रस उत्पन्न होता है, इनके द्वारा ही रति की पुष्टि होती है । प्रिय वस्तु में मन के पूर्ण-प्रेम-परायण- भाव का नाम रति है, ऐसी रति उत्तम कोटि के नायक नायिकाओं में ही होती है, अतएव प्रायः पर-त्री और अनुराग-शून्या वेश्या को कुछ लोग नायिका में परिगणित नहीं करते । १ सयोग और २-विप्रलंभ शृगार के दो भेद हैं। इस रस में सचारी, विभाव और अनुभाव सब भेदों सहित आते हैं, अतएव इसे रसराज कहते हैं। १-संयोग शृंगार एक दूसरे के प्रेम में पग कर नायक नायिका जब परस्पर दर्शन, स्पर्शन और संलापादि में रत होते हैं, तब वह सयोग शृंगार कहलता है। ३१ ,