पृष्ठ:रसकलस.djvu/४९९

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रसकलस अति अनुकूल सुख - मूल कालिंदी के कूल लोक - सिद्ध - पीठ जाको अति ठहरावै है। 'हरिऔध' स-बिधि सम्हारि निज-सॉसन को आसन हूँ मारि सक-त्रासन भगावै है । एरी बीर बिटप कदब पै न बैठो आज रस पैठो मजु मीठी - बॉसुरी बजावै है। काहू मोहिनी को मोह-वारो मन, मोहन को मोहन हमारो मत्र - मोहन जगावै है।सा भूलि ना सकी हौं हूलि हूलि हिय मेरे उठे ललित - लुनाई वाके लोयन - ललाम की । प्यारी छबि पापी-प्रान पलक बिसारै नॉहिँ आनन बगारे कारे - कारे - केस-दाम की। 'हरिऔध' कान हूँ न मान पान कीने बिना चैन-दैन-बारी - सुधा वैन - अभिराम की। ऑखिन समाई क्यों हूँ कढ़त न माई वह मद मंद मंजुल अवाई घनस्याम की ॥३॥ दोहा- मो मन अपनो करत है बॉकी - भौंह - मरोर । श्रावत है चितवत - चकित चाव-भरो - चित चोर ||४|| २-चित्रदर्शन चित्रदशन द्वारा जिस अनुराग की उत्पत्ति होती है उसे चित्रदर्शन कहते हैं। उदाहरण सवैया-- भावुकता-भव-भूति-निकेतन भाव-भरी मुख है बहु - भावत । भाल को रोचन मोहत है मन लोचन-लोच-भरो ललचायत ।