पृष्ठ:रसकलस.djvu/५०५

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रसकलस २५८ 'हरिऔध' फेर कबौं अनुकूल हैं लाल कूल पै कलिंद - तनया के केलि करिहैं। हरिहैं हमारो दुख - पुज गुजमाल - वारे कुज के बिहारी फिर कुज मैं बिहरिहैं ।। २ ।। दोहा- कत्र बियोग - निसि विनसिहै लहे दिवस - संयोग । कब अँखियाँ अवलोकिहैं मुख - अवलोकन-योग ॥ ३ ॥ घन-रुचि-तन-नव-छबि निरखि कब नचि है मन-मोर। बदन-चद अवलोकि है कब मन:- नयन - चकोर ॥४॥ २-चिंता प्रिय प्राप्ति अथवा चित्त-शान्ति-साधन विचार को चिंता कहते हैं । उदाहरण कवित्त- प्रेम को पियूख जो न परतो प्रपच माहि तो न योग - भोग देव - दानव मैं ठनती । सुख को पयोधि तो न वनतो अ - सुख-सिंधु विविध - विभूति अविभूति मैं न सनती। 'हरिऔध' अविधि-उपाधि क्यो परति पीछे अवधि की आस क्यों विसास-जर खनती। तो न मन - काम - रिपु कामुकता काम देति मोहन की मोहनी जो मोहनी न बनती ॥१॥ सवैया- होति न जो ममता ब्रज की ब्रज के दुखियान को क्यों दुख खोतो । भूलतो जो अनुरागिन को अनुराग को तो वहतो किमि सोतो। -