पृष्ठ:रसकलस.djvu/५०७

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उसकलस २६० सवैया- मजु-तमालन सो लिपटी नव - लोनो - लता है बिथा उपजावति । कुजन के बर - वेलि बितान की मंजुलता है महा - कलपावति । सुदरता ससि - सोभित - रन की चारु - सिता-सितता है सतावति । बारिद के अवलोकत ही अलि बारिद - गात की है सुधि आवति ॥२॥ वेई निकुंजन जा मैं लखि इन नैनन ते वह सूरत-साँवरी। वेई कलिदजा के कल कूल भरी जहॉ प्रीतम के सँग भॉवरी। वेई घने-वर-वेलि-वितान जहाँ 'हरिऔध' भई ही निछावरी। हौं झिझकी परी झॉवरी बीर बिलोकत ही मति ह गई बावरी ॥३॥ दोहा- नव-जल-धर-तन सुधि भये चूर होत चित-चैन । लखि कलिंद-तनया-सलिल होत सलिल-मय-नैन ।। ४ ।। है लहरति लोनी-लता लोनी-लता बायु वहति है मद । दुचित होत भो चित चितै चैत - चाँदनी चंद ॥ ५॥ ४-गुण-कथन वियोग समय में प्रिय गुणानुवाद-कथन को गुण-कधन कहते हैं। उदाहरण कवित्त- पर-दुख-दुखी क्यों न दुखी दुख देखि होत काहे पोर पर - पीर - हारी ना हरत है पर - नैन - भरे जाको नैन भरि श्रावत है वाको ग मो हग भरे ना क्यो भरत है।