पृष्ठ:रसकलस.djvu/५११

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रसकलस २६४ ताको कहा प्रवास। मोहि सताइ बचैगो न पातकी पातक-सिधु मैं ताहि दुवैहौं । देही बिथोरि कलंकित-कालिमा छोरि मयक मयकता लैहौं ॥३॥ तो से कपूत के पाप ही ते बड़वानल वारिधि को तन तावत । तो सम पामर होत न, कौन तो, गौतम-ती को कलंक लगावत । पी 'हरिऔध' बिना अब पातकी मोहुँ को पावक लाइ सतावत । डूबत को कहूँ एरे मयक तू एक चुलूक हूँ बारि न पावत ।।४।। दोहा- ताको कैसो बिरह दुख मेरे मानस मैं है निस - दिन जासु निवास ॥ ५॥ है यह सॉवरी - सूरति कहत बने न । निवसति है अखियान मैं अखियाँ निरखि सके न ॥६॥ रुधिर - भरो क्यों है खरो किंसुक कुसुमन ब्याज। आह आह के कोकिला कहा कराहति आज ॥ ७ ॥ मो चित बिचलित होत है बहि बहि दहत सरीर । बरजि बरजि श्रावै न इत सीतल - मद - समीर ।। ८ ।। ७-उन्माद वियागावस्था में सयोगोत्सुक हो बुद्धि-विपर्यय-पूर्वक व्या व्यापार करने, जद, चेतन विवेक-रहित होने और व्यथ हैसने, रोने आदि को उन्माद कहते हैं। उदाहरण कवित्त- हसे, रोवै, गावै, वतरावे, वकै, वोल नॉहिं उठे बैठे, धावै भरै बन बन भॉवरी। नभ को निहारै कछू कहै फिर भू को चहै जकी ही सो रहै जो विलोकै छवि सॉवरी । . -