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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५२६

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२७६ रसनिरूपण मिलत नहीं फल फूल दल रही न छाया आस । कैसे आवे खग सकल सूखे - तरु - वर - पास ||३|| झरि सूखे रज मैं मिले भये काल प्रतिकूल । न्यारी लाली रखत हे लाल लाल जे फूल ।।४|| जिन मैं तरु - वर लहलह रहे महा- छवि देत । हैं उजरे सूखे परे हरे भरे ते खेत ॥शा मनोव्यथा दोहा- कव तोको निरखत नहीं पपिहा प्रीति - समेत । घन तू पाहनता करत जो पाहन हनि देत ||१|| कत चमकावत वारि - धर चपला-मिस तरवारि । चाहत केवल बूंद द्वै चातक चोंच पसारि ॥२॥ आजु कालि मैं लेहु सुधि मरत जिआवहु पालि । धन तब जल वरसे कहा सूखि गयो जब सालि ।।३।। हरो भरो मरु नहि भयो बुझी न चातक - प्यास । चन तो वरसत वारि कत जो जरि गयो जवास ॥४॥ $ अकरुण चित्त दोहा-- कोऊ चितवत चित्त दै कब चाहक की ओर । अछत चारु कर चंद के चिनगी चुगत चकोर ॥१॥ कहा नेह करि कीजिये भलो न नेही संग । दीपक के देखत दहत अपनो गात पतंग ।।२।। कैसे तानत वान तू छोड़ि मनोहर तान। रंग रखत कैसे बधिक हरि कुरंग को प्रान ॥३॥ 1