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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५४२

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२६७ रस निरूपण नाचिहै उघरि जो उघारन न मुख पैहै वंद को लौँ घरनी घरन मॉर्हि रहिहै ॥३॥ सवैया- प्रीति न कैहैं कबौं परदान ते नीति - पुरातन ना प्रतिपालिहै । लाख करौ कोऊ पै कुल-लाज को लोयन-कोयन मॉहिं न लालिहै। जो कहि है 'हरिऔध' कबों कछु सूल लौँ तो तेहि के उर सालिहै । चूंघट घालि लै चूंघट - लोलुप घूघट - वारी न घूघट घालिहै ||४|| पुष्प वर्षा कवित्त- लंबी लंबी - बतियाँ सुनी है लालसायें भरी सुफल न लाये नेह - बीज देखे बोके हैं। चूर चूर किये केते अरुचिर - चावन को चूके बिना चित के चपल - भाव रोके हैं। 'हरिऔध' बाला है अचल लौ अचल ताहि नाहि बिचलाते चाल-मारत के मोके है। वार बार लाली अवलोकी है कपोलन की लालन के लाल-लाल-लोयन बिलोके हैं॥१॥ अखिल-छवीले हैं छबीली-छवि-अनुरागी रस - मयी रसिका के रसिक बसेरे हैं। मधु-मयी मधु की मधुरता पै मोहित है मधु - लोभी करते मधुप - सम फेरे हैं। 'हरिऔध' कैसे नारि - समता करेंगो नर रूपसी मैं रत रूप - वारे बहुतेरे हैं। ३४