पृष्ठ:रसकलस.djvu/५५८

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३११ रस निरूपण सुचि अनुभूति की प्रसूति है तिलक-रुचि भव की विभूति सी विभूति है बदन की ||३|| आपदा-सहित सारी अपकारिता निवारि कनक - कनकता को कहत निकाम, ना। वाकी वामता मै अभिरामता • अमित भरि तजत सकामता समेत धन - धाम, ना। 'हरिऔध' होत अविवेकी ना विवेक-वारो रति ते विरति हूँ मैं गहत विराम, ना। सारत है काम सारी-काम-वारी वातन ते राखत न काम-मयी कामिनी की कामना ||४|| . है मानस मैं सरिता सनेह की है लहरति लोचन मै लोक - प्रेम - रस निचुरत है । कोमल - बयन मैं लसत है सुधा को सोत चावन को चित - चारुता ते चुपरत 'हरिऔध' भावुकता - भरित - उदार - नर भावन मैं भावना सुहावन भरत है। लहि भूत - हित को प्रभूत - अनुभूत - पोत बनि भाव - पूत भव - सागर तरत है ||५ गमन करत मंद मंद है सु - पथ माँहि अपुनीत - पंथ को न पग परसत है । लोक हित - लोलुपता ललित - अयन - बनि रस वितरन को वयन तरसत है। 'हरिऔध' संत - जन बरद - करन माँहि वसुधा - विमोहिनी - विभूति दरसत है।