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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५६

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. है। अत्याचारियो, देशद्रोहियो, मानव-उत्पीड़को के प्रति मनुष्य मात्र का संस्कार द्वेप और घृणामय है। इसलिये जब वह उसकी दुर्गति होते देखता है तो संतोप तो लाभ करता ही है, यह सोचकर भी उत्फुल्ल होता है कि संसार-कटको की जितनी दुर्गति दिखलाई जावे, उतना ही उत्तम, श्योकि उसी को देखकर जनता के नेत्र खुलते हैं, उन्मार्ग-गामियो को त्रास होता है और दुर्जनो से वसुधा सुरक्षित रहती है। नाटक देखने के समय एक भाव और सब दर्शको के हृदय मे जाग्रत् रहता है वह यह कि वे उसको खेल समझते हैं, तात्कालिक होनेवाली सत्य घटना नहीं। इसलिये रंगमंच के सुख दुःखमय दृश्यो का, अभिनेताओं के कौशल- मय अभिनयो का, रंगभूमि के गान-वाद्य और परदो के बहुरंजित सीन- नीनरी श्रादि का प्रभाव तो उनपर पड़ता है और वे प्रभावित भी होते हैं, परन्तु उनको वह शोक, मोह और क्षोभ नहीं सताता जो वास्तविक घटना के संघटित होने के समय प्रत्येक प्रत्यक्षदर्शी मानव-हृदय को कष्ट पहुंचाता है और इस प्रकार उस समय उनका चित्त उन म्वाभाविक आघातों से भी सुरक्षित रहता है, जो ऐसे अवसरो पर प्रत्येक मानव- हृदय पर माधारणतया होते रहते हैं अब तक जो मैने निवेदन किया है, आशा है, उससे यह अवगत हो गया होगा कि किस प्रकार करुण-रस से भी सुख की प्राप्ति होती है, और कैसे भयानक रस और वीभत्स रस में भी हृदय मे अानंद का संचार होता है। नाटको मे विभाव, अनुभाव और सचारी भाव के जिस व्यापार द्वारा इस प्रकार के रसो को उत्पत्ति, परिणति श्रादि होती है, उसको विभावन, अनुभावन और संचारण कहते हैं। साहित्य-दर्पणकार लिग्बते हैं- "विभावन रत्यादेविशेषेणास्वादादुरणयोग्यतानयनम् । अनुभावनमेवभूतस्य त्यादेः समनन्तरनेव रसादिरूपतया भावनन सञ्चारण तथाभूतत्वैव तत्य सम्यक चारणम्"।