पृष्ठ:रसकलस.djvu/५६१

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रसकलस ३१२ प्रेम - बर - वारि बार बार बरसत नैन उर मैं सुधा को मंजु - सोत सरसत है ॥६॥ लोक होत ललित तिलोक - पति - लाभ होत ललक अलौकिक - बिलोचन लहत है। रुचि होत रुचिर बिचार अति चारु होत मानस महान - मोद लहि उमहत है। 'हरिऔध' भीने भव - रंग मैं बिभूति होति भूत - हित - तरु प्रीति - भू मैं पलुहत है। चित चाव भरे होति भावना प्रभाव - मयी भाव - भरे । उर मैं 'अमाव' ना रहत है ।।७।। जाकी कृति रतन - मयी है रतनाकर सी जाकी कल - कीरति कलाकर सी सेत है। लोक-पति की सी जाकी लोक-हित-चिंतना है जाको चित, चेतना लौं रहत सचेत है। 'हरिऔध' सोई है धरा मैं धर्म - धुर-धारी जाकी धनु - धारिता न रुधिर - उपेत है। दान-धारा जाकी धाराधर लौं वरसि जाति जो जन धरा - धर लौं धीरता - निकेत है ।।८।। चित के मलिन भाव अमलिन होत जात विमल - विलोचन के प्रेम - बारि चूये ते । उचित बिचारन के कंधे ना छिलन देत उपचित वहु अविचारन के जूये ते । 'हरिऔध' घरम • धुरंधर मुदित होत मोह - मद विनसे प्रमादिन के मूये ते ।