पृष्ठ:रसकलस.djvu/५६५

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रसकलस ३१६ है वाके मुख • चद को चित अनुराग चकोर । पर -हित - रुचि चोरत नहीं जाके चित को चोर ।।२०।। लोचन - वारे को न क्यों सब थल लसत लखाहि । जगत-बिलोचन बसत हैं जब जन लोचन मॉहि ।। २१ ।। ललित - लुनाई जगत की दिन दिन होत रसाल । लोने लोने नयन मैं बसे सलोने - लाल ॥ २२॥ क्यो सुधरति जो नहि लहति धरम - धुरंधर - सूरि तो कैसे उधरति धरा जो न धरति पग - धूरि ।। २३ ।। अति - पावन - पग - संत को जो नहिं परसत अंग । पावनता लहति पतित-पावनी - गंग ॥२४॥ बहु सजीवता दान करि जीव - बिहीनन काँहि । सुधा बहावत संत - जन बहुधा वसुधा मॉहिं ।। २५ ॥ कर्मवीर कर्तव्य - परायणता और काय-सिद्धि के सिद्धातो पर दृढ़ विश्वास आल- बन, कार्यकारिणी शक्ति के सफल प्रयोगों का अनुधावन और चितन उद्दीपन विमाव, कार्य-सिद्धि के साधनों और प्रयोगों का समुचित व्यवहार अनुभाव एवं धृति, मति, गवं, उग्रता आदि सचारी माव हैं। कर्मवीर के कार्य-साधन में पूर्ण उत्साह की पुष्टि है। उदाहरण कवित्त- विपुल अलौकिक - कलान ते कलित बनि रेलतार काज क्यों अकल्पनीय करते । दामिनी क्यों कामिनी लौ सारति सदन-काम कैसे दिवि - बिभव दिवा - पति बितरते । , -