पृष्ठ:रसकलस.djvu/५६९

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रसकलस ३२० 'हरिऔध' कैसे धरा धारति उधार-व्रत धीर-मति धाम धाम का मल न धोती जों। कैसे अवनी मैं बड़े कमनीय काम होते काम - धुन-वारे मैं न काम - धुन होती जो ॥१०॥ दोहा- तजत काज अपनो नहीं लहत बिजय को हार । हार न मानत साहसी सिर पर गिरे पहार ॥११॥ परि कंटक - बाधान मैं होत चौगुनो चेत । काज - कंज - सुमिलिंद बनि वीर - बंद रस लेत ॥१२।। जन निज बल ते बनि बली होत भूति को भौन । किये भरोसो भाग को भागवान भो कौन ॥१३॥ पावन चरित सजीव - जन है जग जीवन - मूरि । ताप निवारत कर - परस पाप हरत पग - धूरि ।।१४|| करतूती - कर - तल परसि मुकुत कहावत पोत । रजत बनति रज - राजि है कनक लौह - कन होत ॥१५।। गुन - आगर - जन मनि लहत पहुँचत उरग समीप । मोती ते गागर भरत लहि सागर की सीप ॥१६।। दूर होत घर - घर तिमिर जगति जगत में जोति । तेज - वत - तरवा परसि नवनी अवनी होति ॥१७॥ सवाल - बाहु - वैभव मिले सकल होत अनुकूल । कटक - जाल कलित - कुसुम बनत रसाल वबूल ।।१८।। दै अवित्त को वित्त बहु हरत कुपित को पित्त । सचल वनावत अचल को परम - अविचलित चित्त ॥१६॥ मानस - बल बलवान - तन संकट पावत छू न । नावक बनत मयंक - कर पावक बनत प्रसून ॥२०॥