पृष्ठ:रसकलस.djvu/५७५

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सकलस ३२६ रोम रोम छिदे छनौ छोरत उछाह नॉहिँ छत लगे हाथी को उछारत अधर मैं । 'हरिऔध' करि कै धरा को शर-धारा-मयी मुड - माला देत मुड-मालिका के कर मैं । कसि कै कमर बनि अमर अमर - सम सूरमा करत सूरमापन समर मैं ॥१॥ रन की विभीषिका ते भीत कबहूँ ना होत रन - रंग-रंगो - बीर बीरता बरत है। काल - दड गहि दड देत है उदड कॉ हिं बरि - वड - दल को बिहंडि बिहरत है। 'हरिऔध' मारतंड - मंडल - समान बढ़ि तामसिक - मंडली को तामस हरत है। खड - खड - परम - प्रचंड भुज - दंड करि रुंड • मुड - मुड मैं वितुड लौँ लरत है ॥१३॥ दोहा-- पवि - समान तोरत रहत करिवर - कुभ - अपार । काहु गदा - धर - करन को गुरु - तर गदा - प्रहार ॥१७॥ लोक - लाल - प्रतिपाल - रत कुल - कलक - नर - काल । कामद - कल्पलता सरिस है नृपाल - करवाल ॥१८॥ जिअत न जो नर - केहरी नर · केहरि - व्रत धारि । कदाचार - करि - कुंभ को कैसे सकत बिदारि ॥१४॥ गरजि गरजि जो वीर - वर करत न बारिद् काज । पर - अकाज - रत कु - जन पै कौन गिरावत गाज ||२०|| भू-मंडल मैं जो नहीं होत वीर-भुज-दड। दंडित करत उदंड को तो काको कोदड ॥२१॥