पृष्ठ:रसकलस.djvu/५७८

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रस निरूपण दानवीर . याचकगण और दानपात्र आलवन, कर्तव्यज्ञान, कलित-कीर्ति-धवलिमा, दानपात्र की पात्रता आदि उद्दीपन, अकृपणता और सर्वस्वदान एव औदार्य आदि अनुभाव और हर्ष आदि सचारी भाव हैं। दानवीर में दान करने के उत्साह की पुष्टता है । कवित्त- कंचन - समान है अकिंचन - जनन काज पर - हितकारिता सरस मंजु रस है। कौमुदी है सब सुख-साधना कुमोदिनी की कामुक निमित्त काम - धेनु को दरस है। 'हरिऔध' दीनता-धरा की है परम - निधि कु-दिन - कु-धातु काँहिँ पारस • परस है। जीवन - विधायिनी है अवनि - उदारता की तेरी दान - धरा सुधा - धारा ते सरस है ।। १ ।। पलुइति कैसे उपकार की कलित - बेलि सुफल उदारता - लता हुँ कैसे लहती। भूरि - दुख-धूरि की दुखदता क्यों दूर होति जीव - दया - सरिता सरस कैसे रहती। 'हरिऔध' कैसे अकिंचनता- तृनावलि मैं लसति हरीतिमा- विभूति - वती - महती। दीन - तरु होत क्यों हरित हित - बारि लहे दीनता घरा पै जो-नः दान-धारा बहती ॥२॥ -