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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५८२

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३३५ रस निरूपण जो न सुधा - निधि लेत सुधि बनि वनि द्या - निधान । सरस - सुधा तो करत को बसुधा तल को दान ॥१४॥ वा सम कौन दयालु है अवनी - तल मैं आन । पर - दुख देखि द्रवत रहत तो नवनीत - समान ॥१॥ वा सम दानी कौन जो गात उधार निहारि । बस न चलत हूँ देत है अपने वसन उतारि ॥१६॥ साँचो दानी सरस - उर अहै धन - सरिस कौन । असर मैं सर ते अधिक रस बरसत है जौन ॥१७॥ मान गुमान कौं नहीं होत दान अनुकूल । विन फूले फल देत है गूलर तरु को फूल ॥१॥