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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५८७

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सकलस सारी वारि-बूंदन को बारिधि मैं बोरि देहौं बसुधा ते बरखा बयारि को निकारिहौं । 'हरिऔध' बैर करिहैं जो मो बियोगिनी ते तो मैं मोर - कुल को मरोरि मारि डारिहौं। आदर न देही कबौं कादर - पपीहन को बजमारे - बादर को उदर बिदारिहौं ॥१॥ मंजुल • रसाल मंजरीन को बिथोरि देहाँ रसना - बिहीन कैहौं कोकिल - नकारे को । कुसुम - समूह की कुसुमता निवारि दैहौं मारि देहौं गुजत - मिलिंद - मतवारे को । ए हो 'हरिऔध' जो सतैहैं दुख देहैं मोहि बिरस बनैहौं तो सरोज - रस - वारे को । अतक लौं सारे-सुख - तत को निपात कैहौं अत करि देही या बसंत बजमारे को ।। २ ।। पवि-प्रहार मनहरण कवित्त- कैसे तो रसातल पठाइ देही तोको नॉहि वाड़ित जो तोते होत भारत अवनि है। तू जो बार बार वार करत हितून पै तो मेरो कर कैसे ना कटारी तोहि इनिहै। 'हरिऔध' कहै एरे कुल के कलक जो तू तमकि तमकि जाति - नेहिन पै तनिहै । मेरी वंक - भौं तो तेरी वकता नसैहै क्यों न मेरो लाल-नैन क्यो न तेरो काल बनिहै ।। १ ।।