पृष्ठ:रसकलस.djvu/५९

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३६ . करने वाले, कोई महान् हृदय महात्मा ही हैं। सर्वसाधारण अपने ज्ञान, विवेक, विचार और दृष्टि के अनुसार ही उनसे यथाशक्य थोड़ा या बहुत आनंद प्राप्त कर सकते हैं। यही अवस्था नाटक-दर्शकों अथवा कान्य आदि श्रवणकर्ताओ की भी समझनी चाहिये । कितु इससे रस के ब्रह्मास्वाद होने में बाधा नहीं पड़ती, क्योंकि रस परिणति की अंतिम सीमा वही है। विमावादिकों की रसव्यंजकता आप लोग पढ़ते आये हैं कि विभाव, अनुभाव और सचारी भाव तीनों का सयोग जब रति श्रादिक स्थायी भावो से होता है, तभी रस की उत्पत्ति होती है । किन्तु देखा जाता है कि इनमे से किसी एक के द्वारा भी रस उत्पन्न हो जाता है, ऐसी अवस्था में इसकी मीमासा आवश्यक है। साहित्यदर्पणकार लिखते हैं- 'ननु यदि विभावानुभावव्यभिचारिभिर्मिलितैरेव रसस्तत्कथं तेषामेकस्य. दूयोर्वा सद्गावेपि स स्यादित्युच्यते । 'यदि विभाव, अनुभाव और सचारी इन तीनो के मिलने पर ही रसास्वाद होता है, एक दो से नहीं होता, तो जहाँ कहीं एक अथवा दो ही वर्णन है, वहाँ जो रसास्वाद दीख पड़ता है, सो कैसे होगा ?" उत्तर देते है- 'सद्भावश्चेद्विभावादेश्योरेकस्य वा भवेत् । झटित्यन्यसमाक्षेपे तथा दोपो न विद्यते ॥' 'विभावादिको में से दो अथवा एक के उपनिबद्ध होने पर जहाँ प्रकरणादि के कारण दोप का झट से आक्षेप हो जाता है, वहाँ कुछ दोप नहीं होता। -विमलार्थप्रकाशिनी आक्षेप का अर्थ 'व्यंजनीय रस के अनुकूल शेप (अन्य) दो भावों का भी वोव करा देना।