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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५९५

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रसकलस सिव की समाधि भई भंग भीम - नाद भयो कॅपे लोक - पाल धीर ध्रव ना धरे रहे। सहमे सुरासुर स-संकित दिगंत भयो सारे पारावार ना प्रपंच से परे रहे। 'हरिऔध' प्रलय - विभूति को बिकास देखि भुवन - स - भूधर भूधर भयातुर अरे रहे। भीत भये भूत भारी - भीरुता धरा मैं भरी सित - भानु डरे भानु भभरे खरे रहे ॥२॥ धॉय धॉय दहिहै धरातल मसान - सम अगनित खाने ज्वाल - माल-जाल जनिहैं । पावक ते पूरित दिगंत हूँ दुरंत ह्र है दव के अधर मैं बितान बहु तनिहैं । 'हरिऔध' ऐहै ऐसो वार जब नाना लोक लोक - पाल - सहित हुतासन मैं सनिहैं । सूर ससि जारे जैहैं प्रलय - अँगारे मॉहिं सारे तारे तपत - तवा की बूंद बनिहैं ।। ३ ।। डरपैहै घिरि घेरि दानव - समान घन परम - प्रचंडता प्रभंजन दिखावैगो। कर्न - भेदी - गरज कॅप है दिग्गजन कॉहिं काको विज्जु-च्यापक-प्र -प्रकोप ना कॅपावैगो। 'हरिऔध' बारि - धर मूसल-समान-धार बारि-निधि प्लावन लौं विबस बनावैगो। भूमि - तल निलय वनैहै भू - बलय माहि सारो - लोक प्रलय - सलिल मैं समावैगो ॥ ४ ॥ सारे - प्रांत प्लावन मैं परिकै विलीन है