पृष्ठ:रसकलस.djvu/६०१

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रस कलस ३५२ प्रलय प्रकोप दोहा- रवि ससि रहि जैहैं नहीं बचि है नॉहिं अनंत । अंत समय करिहै प्रलय अतक हूँ को अंत ॥१॥ जरि जैहै सारो जगत बरि जैहै बनि घास । उगे दिवाकर वारहो बहे पवन - उनचास ।। २ ।। नरक वर्णन दोहा- पग पग पै पग - वेधिनी पथ - पौरुख - गिरि गाज । है कंटक - मय नरक - महि कुल - कटक जन काज ।। १ ।। पग पारत जरि बारि उठत तरफन हाहा खात । अहै आततायीन हित नरक - अवनि अय - तात ।। २ ॥ सॉसत पै सॉसत सहत पिसत दहत दिनरात । जब कौरव से पातकी रौरव मैं परि जात ॥३॥ कौन नारकी बिन जित निज तन लोहू चाटि । को काकी पोटी दुहत बोटी बोटी काटि ॥४॥ जरहि वरहि पल पल पिसहि मिसहि खाहि तरवारि । कौन यातना ना सहहिं नरक परे नर-नारि ।। ५॥ काल - व्याल - मय - महि मिले दहत देखि सब ओक । भागे भागे फिरत हैं नरक अभागे - लोक ।।६।। गिरत परत सोनित वमत फूटत रहत कपार । पापी पावत नरक मैं पल-पल प्रवल - प्रहार ॥ ७ ॥ जरत नरत को जीव है पै न होत जरि छार । धरा आगि उगिलत रहत बरसत गगन अगार ॥८॥