४६ इन वासनारूप भावो का बार-बार अभिव्यक्त होना ही स्थिरपद का अर्थ है। व्यभिचारी भावो में यह बात नहीं होती, क्योकि उनकी चमक विजली की चमक की तरह अस्थिर होती है। -हिंदी रसगगाधर रस की कल्पना कैसे हुई, इस विषय में जो ज्ञात हुआ, लिखा गया । मिन्न-भिन्नारसो का विशेप वर्णन मुख्य पथ में किया गया है । परस्पर विरोधी रस कुछ रसों का कुछ रसो के साथ विरोध है। जिस रस का जिस रस ले विरोध नहीं है उस रस का उसके साथ अविरोध माना जाता है। साहित्यदर्पणकार लिखते हैं- श्राद्यः करुणबीभत्सरौद्रवीरभयानकैः । भयानकेन करुणेनापि हास्यो विरोधमाक् । करुणो हास्यशृङ्गाररसाभ्यामपि तादृशः ॥ रौद्रस्तु हास्यशृङ्गारभयानकरसैरपि । भयानकेन शान्तेन तथा वीररसः स्मृतः ॥ शृङ्गारवीररौद्राख्यहास्यशान्तैभयानकः शान्तस्तु वीरशृङ्गाररौद्रहास्यभयानकैः ॥ शृङ्गारेण तु वीभत्स इत्याख्याता विरोधिता। इन श्लोको का यह अर्थ हुआ- विरोध है-(१) शृगार रस का करुण, वीभत्स, रौद्र, वीर, भयानक के साथ। (२) हास्य रस का भयानक और करुण के साथ । (३) करण रस का हाम्य, शृगार के साथ । (४) रौद्र रस का हास्य, शृगार और भयानक के साथ । (५) भयानक रस का शृंगार, वीर, रौद्र, हास्य और शांत
1 के साय।