पृष्ठ:रसकलस.djvu/८

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साहित्य के लिये बड़ी उपयोगिनी है। इस समय देश में जिन सुधारों की आवश्यकता है, जिन सिद्धांतो का प्रचार वांछनीय है, उन सवो पर प्रकाश डाला गया है, और उनके सुंदर साधन भी उसमे बतलाये गये हैं। पाश्चात्य विचारों के प्रवाह में पड़कर देश की कुलांगनाओं में, अध अनुकरणकारियो एवं विदेशी भावों के प्रेमियों में जो दोष आ रहे हैं, उनका वर्णन भी उसमें मिलेगा, साथ ही उनकी भर्त्सना भी। नव रसो में श्रृंगार रस प्रधान है, इसलिये ग्रंथ में उसके सब अंगों का वर्णन है, किंतु कविता की भाषा संयत है। कुछ अत्यंत अश्लील विषयों को छोड़कर श्रृंगार रस-संबंधी सब विषय मैंने ले लिये हैं, और सब का वर्णन यथास्थान किया है; केवल इस उद्देश्य से कि जिसमें यह बतलाया जा सके कि जहाँ अश्लीलता की संभावना हो, वहाँ संयत और गूढ भाषा लिखकर किस प्रकार उसका निवारण किया जा सकता है। संभव है कहीं मैं अपने इस उद्देश्य में पूर्णतया मफल न हो सका होऊँ, परंतु ऐसे स्थल को अधिकांश कविताओं को विचारपूर्वक पढ़ने से प्रत्येक सहृदय पुरुषो पर प्रकट हो जावेगा कि मैंने इस विषय में कितना परिश्रम किया है और कितनी सावधानी से काम लिया है। मैं ऐसे कुछ और विषयों को भी छोड़ सकता था, परंतु ऐसा करने पर मेरे उद्देश्य में व्यावात होता, अतएव मैं उन्हें न छोड़ सका। ब्रजभाषा में 'रसविलास' 'रसराज' और 'जगद्विनोद' आदि ऐसे बड़े अपूर्व 'रसग्रंथो' के होते, 'रसकलस' की रचना की कोई आवश्यकता नहीं थी, और न मैं ऐसा करता, यदि इन उद्देश्यो से मैं प्रेरित न होता, और यदि प्राचीन प्रणाली के कवियों की दृष्टि को सामयिकता और देश प्रेम की ओर आकृष्ट करना इष्ट न होता। मैं नहीं कह सकता कि अपने उद्देश्य में मुझको कितनी सफलता मिली, परंतु वास्तविक बात का प्रकट करना श्रावश्यक था। सहदय विबुध समाज मेरे कथन को कहाँ तक स्वीकार करेगा, यह समय बतलावेगा।