पृष्ठ:रसकलस.djvu/८३

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उदाहरण है। प्रयोजन यह कि जब रस बार-बार इतना उद्दीप्त किया जावे कि जो उद्वेगजनक हो, तब वह अवश्य दूषित हो जावेगा । ६-अगी का अनुसधान न करना-रत्नावली नाटिका के चतुर्थ अक में यह वर्णन है कि सिंहलेश्वर का कंचुकी वाभ्रव्य जब आता है तो सागरिका को ही भूल जाता है, यद्यपि नाटिका की प्रधान- नायिका वही है, उसका यह अननुसधान काव्य-दृष्टि से दोपयुक्त है, क्योकि इससे कर्तव्यपरायणता मे च्युति दृष्टिगत होती है। -अनग का वर्णन-प्रयोजन इसका यह है कि जो अग नही है, उसका अयथा वर्णन कर्पूरमजरी मे प्रधान नायिका के वसत वर्णन का उचित समादर न करके सट्टक के प्रधान पात्र ने बदियो की वर्णना की प्रशसा की । बदी सट्टक के अग नहीं थे, उनकी तो बड़ाई की गई, और प्रधान अग का अनादर । अतएव यह अनंग वर्णन हुआ, काव्य में यह दोप माना गया है, इसलिये कि इससे वर्णनीय के प्रति वर्णन के एक प्रधान अधिकारी की उपेक्षा प्रकट होती है। -अगभूत रस की विशेष विस्तृति-अभिप्राय यह है कि नाटक में जो रम प्रधान है, उसके अतिरिक्त उसके अगभूत किसी दूसरे रस का विस्तृत वर्णन । किरातार्जुनीय काव्य मे वीर रस प्रधान है । शृगार ग्स इम काव्य मे वीर रस का एक अगमात्र है । परतु कवि ने इस काव्य के आठव सर्ग मे अप्सराओ के विलाप का विशद वर्णन किया है, अर्थात् अगभूत शृगार रस के वर्णन को विस्तृति दी। ऐसा करना इमलिये सदोप है कि अप्रधान प्रधान पद पा जाता है। -प्रकृतियो का विपर्यास करना-मतलब यह है कि जो जिसकी प्रकृति है, उसके विरुद्ध उसको अकित करना अथवा उसके कार्य-कलाप दिग्बलाना । साहित्यदर्पणकार लिखते हैं- प्रकृतयो दिव्या अदिव्या दिव्यादिव्याश्चेति । तेषां धीरोदात्तादिता, तेपाम-- प्युत्तमावममध्यमत्वम् । तेषु च यो ययाभूतस्तस्यायथावर्णने प्रकृतिविपर्ययो दोपः ।।