पृष्ठ:रसकलस.djvu/८८

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६३ हो, कितु विभावादि सामग्री की न्यूनता के कारण कुछ एक अंश से ही संबंध रखते हो, वहाँ रसभाव का अनौचित्य जानना चाहिये ।" रसगंगाधरकार 'अनौचित्य के विपय में यह लिखते हैं- "अनौचित्य तु रसभगहेतुत्वात् गरिहरणीयम् । भङ्गश्च पानकादिरसादी सिकतादिनिपातजनितेवारुतुदता । तच्च जातिदेशकालवर्णाश्रमवयोवस्थाप्रकृति- ब्यवहारादेः प्रपञ्चजातस्य तत्य तस्य यलोकमापसिद्गनुचितद्रव्यगुण क्रियादि तद मैदः । जात्यादरनुचित यथा-गवादेत्तेजोबलकार्याणि पराक्रमादीनि । सिंदादेश्च साधुभावादीनि । स्वर्ग जराव्याच्यादि । भूलोके तुधासेवनादि । शिशिरे जलविहारादिनि । ग्रीष्मे वहिमेवा । ब्राहाणत्य मृगया । बाहुनत्य प्रतिग्रहः । सदस्य निगमाध्ययनन् । ब्रह्मचारिणो यतेश्च ताम्बूलचर्वणम् | बालबुद्धयो. ती- नम् । युनश्च विरागः दरिद्राणामात्यावरणन् । आन्याना च दरिद्राचार।" "जो बाते अनुचित हैं. उनका वर्णन ग्म के भग का कारण है, अत' उसे तो सर्वथा न आने देना चाहिये। भग किसे कहते है. उसको भी समझ लीजिये। जिस तरह शर्यत आदि किसी वस्तु मे कोई कड़ी वन्नु गिर जाने के कारण वह खटकने लगती है, इसी प्रकार रस के "अनुभव मे ग्वटकने को रसभंग कहते हैं। अनुचित होने का अर्थ यह है कि. जिन-जिन जाति, देश, काल, वर्ण, आश्रम. अवस्था. स्थिति और व्यवहार आदि सांसारिक पदार्थो के विपय में जो-जो लोक और शास्त्र मे सिद्ध एवं उचित द्रव्य, गुण अथवा क्रिया आदि हैं, उनसे भिन्न होना । जाति आदि के संबंध में जो अनुचित बात है, अब उनके कुछ उदाहरण सुनिये । जाति के विरुद्ध, जैसे बैल और गाय आदि के तेज और बल के कार्य, और सिह आदि का मीधापन आदि । देश के विरुद्ध-जैसे स्वर्ग मे बुढ़ापा, रोग आदि और पृथ्वी में अमृतपान प्रादि । काल के विरुद्ध-ठंट के दिनों में जल-विहार श्रादि. और गरमी के दिनों में अग्नि-सेवन आदि । वर्ण के विरुद्ध-जैसे ब्राह्मण का शिकार खेलना, क्षत्रिय का दान लेना और शूद्र का वेद पढ़ना आदि । ,