पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/१९

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१-कवि-कर्त्तव्य
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अश्लीलता और ग्राम्यता-गर्भित अर्थो से कविता को कभी न दूषित करना चाहिए और न देश, काल तथा लोक आदि के विरुद्ध कोई बात कहनी चाहिए। कवितो को सरस बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। नीरस पद्यों का कभी आदर नहीं होता। जिसे पढ़ते ही पढ़ने वाले के मुख से 'वाह' न निकले, अथवा उनका मस्तक न हिलने लगे, अथवा उसकी दन्त-पक्ति न दिखलाई देने लगे, अथवा जिस रस की कविता हैं, उस रस के अनुकल वह व्यापार न करने लगे, तो वह. कविता कविता ही नहीं,वई तुक मन्दी मात्र है। कविता के सरस होने ही से ये उपयुक्त बाते हो सकती हैं, अन्यथा नहीं। रस ही कविता का सब से बड़ा गुण है। श्रीकण्ठ-चरित के कर्ता ने ठीक कहा है-

तैस्तैरलकृतिशतैरवतंसितोऽपि रूदो महत्यपि पदे धृतसौष्ठवोऽपि । नून विना घनरस प्रसराभिषेकं काब्याधिराजपदमहर्ति न प्रवन्धः ॥

अर्थात् सैकड़ों अलङ्कार से अलंकृत हो कर भी, शब्द-शास्र के उच्चासन पर अधिरूढ़ हो कर भी और सब प्रकार सौष्ठव को धारण करके भी रम-रूपो अभिषेक के बिना, कोई भी प्रबन्ध काव्याधिराज पदवी को नहीं पहुँचता ।

विषय

कविता का विषय मनोरुजक और उपदेश-जनक होना . चाहिए। यमुना किनारे केलि-कौतुहल का अद्भुत अद्भुत वर्णन बहुत हो चुका। न परकीयात्रा पर प्रबन्ध लिखने की अब कोई आवश्यकता है और न स्वकीयाओ के “गतागत” की पहेली बझाने की। चींटी से लेकर हाथा पर्यन्त पशु; भिक्षक से लेकर राजा पर्य्यन्त मनुष्य; विन्दु से लेकर समुद्र पर्यन्त जल; अनन्त