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रसज्ञ रञ्जन
 

आसकती है। पर क्या कोई कह सकता है कि आशिकाना शेर कहने वालों का सारा रोना, कराहना, ठंडी सासे लेना, जीते ही अपनी कब्रो पर चिराग जलाना सब सच है? सब न सही उनके प्रलापो का क्या थोड़ा सा भी अंश सच है? फिर इस तरह की कविता सैकड़ो वर्षों से होती आरही है। अनेक कवि चुके, जिन्होने इस विपय पर न मालूम क्या-क्या लिख डाला है। इस दशा मे नये कवि अपनी कविता मे नयापन कैसे ला सकते है? वही तुक, वही छन्द, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक इस पर भी लोग पुरानी लकीर को बराबर पीटते जाते हैं। कवित्त, सवैए, घनाक्षरी, दोहे, सोरठे लिखने से बाज नहीं आते। नख शिख, नायिका-भेद, अलङ्कार शास्त्र पर पुस्तको पर पुस्तके लिखते चलेजाते है। अपनी व्यर्थ बनावटी बातो से देवी- देवताओ तक को बदनाम करने से नहीं सकुचाते। फल इसका यह हुआ कि कविता की असलियत काफूर होगई है। उसे सुन-कर सुनने वाले के चित्त पर कुछ भी असर नहीं होता, उलटा कभी मन मे घृणा का उद्रेक अवश्य उत्पन्न होजाता है।

कविता के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित होजाने से साहित्य पर भारी आघात होता है। वह वरबाद होजाता है। भाषा मे दोष आजाता है। जब कविता की प्रणाली बिगड़ जाती है, तब उसका असर सारे ग्रन्थकारो पर पड़ता है यही क्यो, सर्वसाधारण की बोल-चाल तक मे कविता के दोप आ जाते है। जिन शब्दो, जिन भावो, जिन उक्तियो का प्रयोग कवि करते है उन्ही का प्रयोग और लोग भी करने लगते हैं। भापा और बोलचाल के सम्बन्ध मे कवि ही प्रमाण माने जाते हैं। कवियों ही के प्रयुक्त शब्दो और मुहावरों को कोपकार अपने कोपों मे रखते हैं। मतलब यह है कि भाषा और वोल-चाल का बनाना या विगाड़ना प्रायः कवियोही के हाथ मे रहता है। जिस