पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३-कवि और कविता
४९
 

मे अनेक प्रकार के सुख, दुःख आदि का अनुभव करता है। उसकी दशा कभी एक-सी नहीं रहती। अनेक प्रकार के विकार- तरङ्ग उसके मन में उठा ही करते हैं। इन विकारो की जाँच, ज्ञान और अनुभव करना सबका काम नहीं। केवल कवि ही इनके अनुभव करने और कविता द्वाराऔरो को इनका अनुभव कराने में समर्थ होता है। जिसे कभी पुत्र-शोक नहीं हुआ, उसे। उस शोक का यथार्थ ज्ञान होना सम्भव नही। पर यदि वह कवि है तो वह पुत्र-शोकाकुल माताया पिता की आत्मा मे प्रवेश सा करके उसका अनुभव कर लेता है। उस अनुभव का वह इस तरह वर्णन करता है कि सुनने वाला तन्मनस्क होकर उस दुख से अभिभूत होजाता है। उसे ऐसा मालूम होने लगता है कि स्वयं उसी पर वह दुख पड़ रहा है। जिस कवि को मनो-के विकारो और प्राकृतिक बातो का यथेष्ट ज्ञान नहीं वह कदापि," अच्छा कवि नहीं होसकता।

हाली के मुकद्दमे को पढ़कर हमारे एक मित्र महाशय ने कुछ अलवार-शास्त्र के प्राचार्यों की राय लिखी है और संक्षेपतया यह दिखलाया है कि हमारे अलङ्कारिकों ने कविता के लिए किन-किन बातो की जरूरत समझी है। आपके कथनका आशय हम नीचे देते हैं। पाठक देखेंगे कि हालीकी राय सस्कृत-साहित्य १ के आचार्यों से बहुत कुछ मिलती है । सुनिए-

नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतञ्च बहुनिर्मलम् ।
 
अमन्दश्चाभियोगोऽस्याः कारणं काव्यसम्पदः ।।
 
(आचार्य दण्डी-काव्यादर्श)
 

अर्थात् स्वाभाविकी प्रतिभा अर्थात् शक्ति (१); शब्द- शास्त्रादि तथा लोकोचारादि का विशुद्ध ज्ञान (२) और प्रगाढ़ , अभ्यास (३) यह सब मिलकर काव्य-रूप सम्पत्ति का कारण