पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४- कविता
५९
 

देख कर हँसते रहते हैं, किवा ऊँचा करते हैं । इसका यह कारण है कि उन पदो मे भरे हुए भक्तिरस का स्वीकार अथवा उपभोग करने का सामथ्ये उनमे नही होता । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं । खून के समान भारी घटनाये जिम जगह हो जाती है उस जगह सव समझदार मनुष्य घबरा उठते है, परन्तु तीन-चार वर्षे के छोटे-छोटे लडके वही आनन्द से खेला करते हैं । उन पर उस घटना का कुछ अनर नही होता। अज्ञानता के कारण खून के समान भयानक घटनाओ की भयङ्करता का विचार ही जब उन लड़को के मन मे नही आता, तब उनको उस विपय में भय कैसे मालूम हो सकता है ?

कवियो का यह काम है कि वे जिस पात्र अथवा जिस वस्तु का वर्णन करते है उनका रस अपने अन्तःकरण में लेकर उसे है ऐसा शब्द-स्वरूप दे देते हैं कि उन शब्दो को सुनने से वह रस सुनने वालों के हृदय मे जागृत हो उठता है। ऐसा होना बहुत कठिन है। सच तो यह है कि काव्य रचना में सब से बड़ी कठिनता जो है वह यही है। रामचन्द्र और सीता को हुए कई युग हुए। तुलसीदास को भी आज कई सौ वर्ष हुए। परन्तु उनके काव्य मे किसी-किसी स्थान पर इतना रस भरा हुआ है कि उस रस के प्रवाह में पड कर वहे विना सहृदय मनुष्य कदापि नहीं वच सकते। रामचन्द्र के वन-गसन-समय सीता कहती हैं-

प्राणनाथ करुणायतन, सुन्दर सुखद सुजान ।
तुम बिन रघुकुल-कुमुद-विधु,सुरपुर नरक-समान॥
मातु पिता भागिनी प्रिय भाई।
प्रिय परिवार सुहृद समुदाई ॥
सासु ससुर गुरु सुजन सहाई।
सुठि सुन्दर सुशील सुखदाई ॥