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रसज्ञ-रञ्जन
 

किया है, उसी सुभग का यह सतत स्मरण करती रहती है। इसका सन्ताप मुझे तो, इस तरह, दुर्निवार मालूम होता है। खिड़की की राह से चन्द्रमा को देखने मे इस चञ्चलाक्षो को पीड़ा होती है। इसलिए यह अपना मुँह नीचा कर लेती है। पर ऐसा करने से इसका मुह इसके वक्ष-स्थल में प्रतिविम्वित हुआ देख पड़ता है। उसे देख चन्द्रमा के धोखे यह बेतरह कॉप उठती है। एक तो स्वभाव ही से यह सुकुमार और दुबली थी, फिर मनोज ने इसे और भी दुर्बल कर दिया। यह देख कर इसके हाथ के कङ्कणों को यह पन्देह हुआ कि अब यह हमारा बोझ न सह सकेगी। इसलिए देखो, वे जमीन पर जा गिरे है। यह कुमुदिनी इस पिष्टा चाँदनी से अभी तक प्रीति रखती है। सख', इसको किसी वस्तु से ढक दे, जिसमे इसे चन्द्र-किरणो का स्पर्श न हो। नहीं तो, कही, इसे भी मेरे समान ज्वर न आ जाय। इस तरह यह बार-बार कहा करती है। न इसे सघन वृक्षो की छाया से शीतल उद्यान मे आराम मिलता है, न चन्दन-चर्चित और मणि- मण्डित अट्टालिका में आराम मिलता है; औरन चन्द्र-मरीचियों से धौत महल के भीतर ही आराम मिलता है।

इस प्रकार दमयन्ती की गुप्त चेष्टायो को वर्णन करके उसकी सखियां उस समय के अनुकुल उपचार करने लगी। उन्होंने कमलिनी-दलो की एक कोमल शय्या प्रस्तुत करके उस पर उसे लिटाया। पर बेचारी दमयन्ती को उस महा शीतल शय्या पर वैसा ही सन्ताप हुआ, जैसा कि नात्तण्ड की प्रचण्ड किरणो से उत्तप्त हुए गढ़े मे पड़ी हुई मछली को होता है। उसे बहुत ही व्याकुल देख उसकी सबसे प्यारी सखी ने ताजी मृणाल-लता को उसके कण्ठ पर रक्खा कि कुछ तो उसे ठंडक पहुँचे। परन्तु हुआ क्या? उसके ताप की प्रचण्डता से वह मृणाल-लता नीलम के समान काली होगई!