पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/९५

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९-नल का दुस्तर दूत-कार्य
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हो सके पर वह सवको देखता रहे। नल इस तरह, इधर दूत बनकर कुण्डिनपुर पहुँचा। उधर पूर्वोक्त चारो दिक्पालों ने पृथक्- पृथक् अपनी दूर्तियाँ भी दमयन्ती के पास, उसे अपनी ओर अनुरक्त करने के लिए भेजीं। इतने छल-कपट और प्रयत्न को काफी न समझ कर उन्होने दमयन्ती के पिता को बहुत कुछघूस भी दी। सबने अद्भ त-अद्ध त उपायन राजा भीम को भेजे।

नल ने अपना रथ, अपने अनुचर और अपना असबाव आदि कुण्डिनपुर के बाहर ही छोड़ा। दिकपालों की स्वार्थपरता और निलेज्जता को धिक्कारते हुए उसने नगर में प्रवेश किया। जी कड़ा करके वह राज-प्रसाद के पास पहुँचा। धीरे-धीरे वह उसके भीतर घुसा। इन्द्रदत्त तिरस्कारिणी विद्या के प्रभाव से उसे किसी ने न देखा। घूमते-घामते वह दमयन्ती के महलो मे दाखिल हुओ। कहीं किसी कामिनी के शरीर का स्पर्श होने से वह झिझक उठा। कही किसी का कोई अनावृत्त अङ्ग देख कर उसने ऑस्ने मूंद लो। किसी को अपने स्थिति-स्थान की ओर मुख किये देख वह डर उठा कि कहीं मैं देख तो नहीं लिया गया। इस प्रकार अन्तःपुर की सैर करते हुए वह दमयन्ती के सम्मुख उपस्थित हुआ। उसके रूप-माधुर्य की शोभा देखते वह देर तक वहाँ खड़ा रहा, उसने सबको देखा; उसे कोई न देख सका। तदनन्तर, समय अनुकूल देख, अङ्गीकृत दूतत्व निर्वाह के इरादे से, वह प्रकट हो गया। इसके बाद वहाँ जो कुछ हुआ उसके वर्णन में श्री हर्ष ने, अपने नैषध-चरित में अपूर्व कवित्व-कौशल दिखाया है। उसी का भावार्थ, संक्षेप में, आगे दिया जाता है।

पाठको को स्मरण रखना चाहिए कि नल और दमयन्ती दोनों, पहिले ही से, एक दूसरे पर अनुरक्त थे। तिस पर भी नल ने याचक इन्द्र की याञ्चा को विफल कर देना अपने वश के विरुद्ध समझा। अतएव उसने दूत बनना स्वीकार कर लिया।