पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पंचम प्रभाव १२५ नायक-कल ( दधिदान ) देने को कह गई थी, अरी दे । दासी-प्रोली फैलाओ ( वह भर जाय तो), फिर फेंट भी भर लेना। क्या आप मार्ग न छोड़ेंगे। नायक-मैं मार्ग छोड़ने को इस शर्त पर प्रस्तुत हूँ कि तू इस ( नायिका राधिका ) की लाजभरी चितवन छुड़ा दे । दासी -बात सँभाल के कहिए अगर कोई सुन ले तो ! क्या जानते नहीं कि यह किसकी बेटी है ? नायक-जानता हूँ, यह वृषभानु की बेटी है, पर तुझे नहीं जानता कि तू किसकी दासी है । (तू क्यों दाल-भात में मूस रचंद हो रही है)। जलविहार को मिलन, यथा-( सवैया ) (१७५) हरि राधिका मानसरोवर के तट ठाढ़े रो हाथ सों हाथ छिये । पिय के सिर पाग प्रिया मुकताहल छाजत माल दुहूँनि हियें। कटि केसव काछनी सेत कळे सबही तन, चंदन चित्र किये निकसे छिति छोरसमुद्र ही तें सँग श्रीपति मानहु श्रीय लियें ।३६। शब्दार्थ-मानसरोवर = तालाब । छियें = (बुंदेली) छुए, पकड़े हुए। पाग = पगड़ी। मुकताहल - मुक्ताफल, मोती। पिय के० = प्रिय के सिर पर पगड़ी है और प्रिया के सिर पर मोती। छाजत = शोभित है। माल० = दोनों के गले में (पुष्प) मालाएँ पड़ी हैं। छीरस मुद्र=क्षीरसागर। कटि= कमर। काछनी- कछनी, एक प्रकार की जांघिया। सेत= श्वेत, उज्ज्वल । कछे= पहने हुए। छिति = क्षिति, पृथ्वी। श्रीपति =विष्णु। श्रीय = लक्ष्मी ( को)। अलंकार-उत्प्रेक्षा। अन्यच्च, यथा-(सवैया ) (१७६) रितु प्रीषम के प्रतिबासर केसव खेलत हैं जमुना जल में। इत गोपसुता वहि पार गोपाल बिराजत गोपनि के दल में । अति बूड़त हैं गति मीनन की मिलि जाइ उठे अपने थल में । इहि भाँ ति मनोरथ पूरि दुवौ जन दूरि रहैं छवि सों छल में ॥३७॥ शब्दार्थ-प्रतिवासर = प्रतिदिन । इत = इस प्रोर । गति मीनन की = मछलियों की भाँति । मिलि०= पानी के भीतर मिलने के बाद फिर अपने ही स्थान में जाकर निकलते हैं ( जल के भीतर से ऊपर उभरते हैं )। दुवौ जन = दोनो व्यक्ति, नायक नायिका। छबि सों सुंदरता से, सफाई से। छल में छलपूर्वक लोगों की आँख बचाकर । ३६ -छियें-दिये । मुकताहल-मुकताघर, मुकताछर। छाजत-राजति । कछे-कसी, कसे, लसी । चित्र-खोरि । श्रीय-श्रीहि ।