पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१३६

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रसिकप्रिया अथ श्रीराधिकाजू को किलकिंचित हाव, यथा-( सवैया ) (२२०) कौने रसै बिहँसै लखि कौनहिं कापर कोपिकै भौंह चढ़ावै । भूलति लाज भटू कबहूँ कबहूँ मुख अंचल मेलि दुरावै । कौन की लेति बलाय, बलाय ल्यौं, तेरी दसा यह मोहिं न भावै । ऐसी तौ तू कबहूँ न भई अब तोहिं दई जनि बाइ लगावै ।४० शब्दार्थ-रसै = आनंदित होती है । कापर= किस पर । बलाय %3D बलैया । भावार्थ-(सखी की उक्ति नायिका प्रति ) हे सखी, तू किस आनंद में मगन हो रही है, किसे देख हँसती है और किस पर क्रुद्ध होकर भौंहें चढ़ाती है। कभी तो तू लज्जा छोड़ देती है और कभी लज्जावश पूंघट में मुंह छिपा लेती हैं । आज किसकी बलैया ले रही है, मैं तेरी वलैया लेती हूँ, बतला! तेरी यह दशा मुझे अच्छी नहीं लगती। ऐसी तो तू कभी भी नहीं हुई थी, विधाता तुझे यह हवा न लगने दे । अलंकार ~प्रथम समुच्चय। सूचना-'सरदार' ने लिखा हैं कि यहाँ 'कौने रसै' से अभिलाष, 'कौनहि लखि बिहँसै' से मंद हास, 'कोपिके भौंह चढ़ावै' से 'क्रोध', 'भूलति लाज' से 'गर्व स्मित', 'कबहूँ मुख अंचल माहिं छिपावै' से भय एवम् लज्जा तथा बलाय लेति' से हर्ष आदि भाव सूचित होते हैं । श्रीकृष्णजू को किलकिंचित हाव, यथा-( सवैया) (२२१) ऐसी है गोकुल के कुल की जिनि दच्छिन नैन किये अनुकूले । खंजन से मनरंजन केसव हास बिलास लता लगि मूले । बोलें झुकौ उझको अनबोलें फिरौ बिझुके से हिये महिं फूले । रूप भए सबके बिष ऐसे है कान्ह कहौ रस कौन के भूले ।४१॥ शब्दार्थ-दच्छिन = सब पर समान भाव रखनेवाला ( नायक )। अनुकूल = केवल एक ही से प्रेम रखनेवाला ( नायक)। उझको = चंचल, लालायित होते हैं । बिझुके = भड़के हुए। भावार्थ-( सखी की उक्ति नायक प्रति) हे कृष्ण, गोकुल के कुल में ऐसी कोन है जिसने आपके दक्षिण नेत्रों को अनुकूल कर लिया है ? सबके प्रति संचरित होनेवलि नेत्रों को अपनी ही ओर लगा रखा है । मन को आनं- दित करनेवाले आपके खंजन वत् ( सुंदर ) नेत्र हास-विलास रूपी लता में झूल रहे हैं । आप बोलने पर झुकते ( रोषयुक्त होते ) हैं और न बोलने पर ४०--रसै-त्रसै । मेलि मेरे, माहिं । दुराव-छिपावै । ल्यों-त्यों। ४१-के कुल-को कुल । किये-करे । केसव-के सब । हास० - हार बिहार । को-झुक उझक । अनबोले-बिन बोले.। फिरो-फिरै । के विष- केसव ।